Saturday, July 17, 2010

मन चंगा तो कठौती में गंगा

तीर्थ अनेकार्थी शब्द है, जिसका अर्थ है पवित्र करने वाला। श्रीमद्भागवत में उल्लेख मिलता है कि संत और महापुरुष भगवदीय गुणों की संपन्नता के कारण ही परम तीर्थ कहे जाते हैं-तीर्थोकुर्वन्ति तीर्थानि। स्कन्द पुराण में भी कहा गया है कि तीर्थ करने का मुख्य प्रयोजन संत-दर्शन का लाभ प्राप्त करना होता है। अत:जिस भू-भाग में संत-महात्मा निवास करते हैं, वह तीर्थ कहलाता है। इसी प्रसंग में नारद सूक्ति में कहा गया है-संत महापुरुष तीर्थ को सुतीर्थ,कर्मो को सुकर्म और शास्त्रों को सद्शास्त्रबना देते हैं,क्योंकि साधुजनलौकिक और पारलौकिक मोह-वासनाओं से विरत, भगवदीय गुणों से युक्त होने के कारण शांतचित्त होते हैं। साधुजनस्वयं ही चलते-फिरते तीर्थ जैसे ही हैं। तीर्थो का फल तो समयानुसार ही मिलता है, किंतु संत-समागम का फल तत्काल प्राप्त हो जाता है। साधुजनभगवन्नामकी महिमा का गान करते हुए कहते हैं-जहां भगवान की कथा होती है वहां सभी तीर्थ आ जाते हैं।
मन की शुद्धि पर बल देते हुए महापुरुषों ने मन को ही परमतीर्थमाना है। स्कंदपुराणमें सप्त पुरियोंकी ही भांति सत्य, क्षमा, इन्द्रिय-संयम, दया, प्रियवचन, ज्ञान और तप को सप्ततीर्थके रूप में स्वीकार करते हुए इन्हें मानस तीर्थ की संज्ञा दी गई है। पवित्र जल से काया के वाह्य भाग को धो लेना ही आवश्यक नहीं होता,वरन् वाह्य-शुद्धि के साथ-साथ अंत:शुद्धिभी आवश्यक होती है-स्वमनो विशुद्धम्अर्थात् अपने मन की शुद्धि ही परम तीर्थ है। तुलसीदास जी ने कहा है-प्रेम भगतिजल बिनुरघुराई। अभिअंतरमल कबहून जाई। इसी प्रकार गुरु, माता-पिता, अतिथि आदि के वचन भी अंत:करण के राग द्वेषादिविकारों को दूर करते हुए मन को निर्मल कर तीर्थ बना देते हैं। सर्वतीर्थका आधार हमारी श्रद्धा और विश्वास ही है। तीर्थ का राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक दृष्टि के साथ ही विभिन्न प्रदेशों के रहन-सहन, भाषा-शैली, उपासना-पद्धति, वेश-भूषा, विचार, व्यवहार, परस्पर सद्भाव के माध्यम से एकसूत्र में बांधते हुए संपूर्ण राष्ट्र को वसुधैव कुटुम्बकम्की पुनीत धारणा के महत्व का द्योतक हैं। तीर्थ मानव-जीवन में आध्यात्मिक चेतना के संव‌र्द्धन और नवीन चिंतन-शक्ति के सत्प्रेरक हैं।

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